Guest Writer : न्याय व्यवस्था में सुधार देश की प्राथमिक जरूरत
Dr. Avadh Narayan Tripathi
स्वतंत्र चिंतक
सभी व्यवस्था में समय के साथ बदलाव जरूरी होता है। कहा जाता है कि स्थिर पानी सड़ कर बदबू करने लगता है। बहाव, प्रवाह और बदलाव जीवंतता का लक्षण है। देश का संविधान बना तब परिस्थितियां भिन्न थी। हमारे विद्वान नेताओं ने उस समय की बेहतरीन व्यवस्था को अपनाया। हालांकि विभिन्न देशों की अच्छी बातें समाहित करने में बहुत कुछ गड्डमड्ड भी हो गया। उसके बाद समय की जरूरत को समझते हुए और कभी कभी अपनी सत्ता पर पकड़ बनाए रखने के लिए भी संविधान में बहुत कुछ संशोधन किया गया। लेकिन न्यायपालिका की स्वतंत्रता व निष्पक्षता को ध्यान में रखकर उसमें कोई मौलिक सुधार नहीं किया गया।
आज जब देश का हर पढ़ा लिखा और अनपढ़, अमीर और गरीब न्यायालय की तारीख पर तारीख की नीति से पीड़ित, दुखी व परेशान है तो न्यायपालिका की कार्यप्रणाली पर सवाल उठना लाजिमी है। यह कहकर कि देश की बढ़ती जनसंख्या के हिसाब से न्यायालयों व न्यायधीशों की संख्या कम होने से समय पर फैसला नहीं हो पा रहा है, इसे अपने दायित्व से भागना और सच्चाई से मुख मोड़ना ही कहा जाएगा। आखिर फिर कैसे तथाकथित विशिष्ट लोगों के लिए आधी रात को भी न्यायपालिका के दरवाजे खुल जाते हैं और फैसला भी सुना दिया जाता है। फिर न्याय की देवी अंधी है और उसके सामने सभी बराबर हैं कि बात बेमानी हो जाती है।
इधर कोलेजियम सिस्टम पर खूब चर्चा हुई। उसकी अच्छाई और खामियों को अपनी सुविधा अनुसार परिभाषित किया गया लेकिन आम आदमी को तो इन पचड़ों से कोई मतलब नहीं। उसे तो बस समय से और सस्ता न्याय मिल सके, इसी बात से मतलब है, यही उसकी सोच है। ऐसी स्थिति में रास्ता क्या है? अभी झारखण्ड में उच्च न्यायालय के नये भवन के उद्घाटन के अवसर पर महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ने भी अपनी चिंता जताई और एक सार्वजनिक समारोह में महामहिम राष्ट्रपति महोदया के उद्गार, जहां स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश महोदय और केन्द्रीय कानून मंत्री उपस्थित हों, वहां देश के गरीब तबके को न्याय नहीं मिल पाने की बात कहना, बहुत बड़ा संदेश है और इससे स्वयं राष्ट्रपति महोदया रूबरू रही हैं, यह उनका अनुभव जनित पीड़ा है।
इन परिस्थितियों में ऐसे कौन से कदम उठाने आवश्यक हो जाते हैं जिससे आम आदमी इस वकीलों, न्यायधीशों और उनके मुंशी की मकड़ जाल से छुटकारा पा सके और उसे सस्ता और समय से न्याय मिल सके। इस दिशा में निम्न पहल से बहुत कुछ राहत हो सकती है-
पहला, अब जब तकनीकी का हर जगह उपयोग हो रहा है और सब्जी वाला भी आनलाइन पेमेंट ले रहा है, ऐसे में जिला व तहसील न्यायालयों तक की वेबसाइट होना अनिवार्य कर दिया जाय, जहां से आम आदमी को अपने मुकदमे की स्थिति का पता चल सके।
दूसरे, सभी वकीलों की फीस की दर निर्धारित हो। हां, उसकी अलग अलग श्रेणी बनाई जा सकती है, जिससे गांव देहात के गरीब किसान व आमजन का वकीलों द्वारा शोषण कम किया जा सके।
तीसरे, सभी प्रकार के मुकदमों की भी श्रेणी बना दी जाय और यह कानूनन बाध्यता हो कि किसी भी न्यायालय (तहसील, जिला, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में अधिकतम इतने वर्षों में जज साहब को फैसला देना ही होगा अन्यथा उनको पदावनत कर दिया जाएगा।
चौथे, सभी प्रकार के मुकदमों के लिए न्यायालय की लक्ष्मण रेखा को सख्ती से निर्धारित किया जाय कि इस श्रेणी के मुकदमे जिला न्यायालय तक ही सुने जाएंगे, इस श्रेणी के उच्च न्यायालय और इस श्रेणी के सर्वोच्च न्यायालय में सुने जाएंगे।
पांचवां, जो न्यायाधीश एक निश्चित संख्या से अधिक केसों का अंतिम निष्पादन करेगा, उसी के अनुसार उसके प्रमोशन को प्राथमिकता दी जाएगी।
यदि इन सुझावों को अमली जामा पहनाया जाय तो बहुत हद तक आमजन को राहत मिल सकेगी और यह तारीख पर तारीख का खेल खत्म हो जाएगा। इससे आमजन का वकीलों द्वारा शोषण भी कम होगा और न्यायालयों में पेंडिंग केस की संख्या भी धीरे धीरे समाप्त हो जायेगी।
इसके अलावा सभी राज्य व केन्द्र सरकार न्याय व्यवस्था को गतिशील व पारदर्शी बनाने के लिए अपने बजट में एक निश्चित धन की व्यवस्था करें और सभी न्यायाधीशों के लिए अच्छे आवास तथा न्यायालय के अच्छे भवन, जो आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित हों, इसकी प्राथमिकता पर व्यवस्था करे ताकि हमारे माननीय जज साहब अधिक समय अपने कोर्ट में दे सकें और पेंडिंग केस की प्रवृत्ति को समाप्त करने की दिशा में सार्थक प्रयास कर सकें।