Guest Writer : तभी तो तुलसी बाबा कहते हैं- भय बिनु होयहिं न प्रीति

पुष्कर रवि
श्रीराम भारतीय सभ्यता में मर्यादा पुरुषोत्तम तथा चैतन्य पुरुष के प्रथम उदाहरण के रूप में देदीप्यमान हैं। भारतीय सभ्यता में श्रीराम के प्रति जो भाव है वह प्रायः साहित्यिक उदाहरणों से दृष्टिगोचर होता है। वाल्मीकि से लेकर तुलसीदास तक के राम निर्मल, सहज एवं सरल हैं। मर्यादा एवं धर्मपरायणता में श्रीराम सा उदाहरण अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। पिता के वचनों के लिए वनगमन एवं पत्नी हेतु उस समय के सबसे शक्तिशाली शासक से युद्ध कर उसे पराजित करने वाले राम एवं उनके रघुकुल की कसमें, संबंधों को कसौटी पर खरा साबित करने के लिए लोग आज भी खाते हैं। मंदिरों में तथा चित्रों में सदैव धनुष धारण किये पर चेहरे पर मोहक मुस्कान के साथ दिखने वाले राम के व्यक्तित्व को लेकर कई उपमाएं दी गई हैं।
तुलसी बाबा के शब्दों में राम कहते हैं- निर्मल जन मोहिं सहज ही पावा। मोहें सपनेहूँ छल-छिद्र ना भावा।। अर्थात निर्मल स्वभाव के व्यक्ति के लिए राम को पाना सहज है..। यहाँ ‘निर्मल’ शब्द जितना आसान सा प्रतीत हो रहा है, इसका अर्थ उससे कई गुना व्यापक है और ऐसा होना तो सांसारिक आदमी के लिए असंभव सा है। पर निर्मल हो जाने भर से भी जप-तप, पूजा पद्दति से अनभिज्ञ, अज्ञानी व्यक्ति भी राम का प्रिय हो जाता है। हृदय में प्रेम एवं पत्नी वियोग में पीड़ा से भर कर, राम कहते हैं- घन घमण्ड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।। यहाँ लंका विजय से पूर्व सुग्रीव के वचनानुसार माता सीता की खोज में हो रहे विलंभ से व्यथित और वर्षा ऋतु में श्रीराम माता सीता की चिंता एवं वियोग की पीड़ा से व्याकुल हैं। परम् चैतन्य से भिज्ञ होने के बावजूद भी यहाँ राम प्रेम एवं प्रिय की चिंता के मानव गुण को प्रकट कर रहे हैं। अपनो के संकट को अपना मानना और उनकी रक्षा हेतु सर्वस्व सुख को त्याग देना राम को आराध्य बना देता है।
‘निराला’ ने ‘राम की शक्ति पूजा’ में श्रीराम के व्यक्तित्व का चित्रण जिस प्रकार किया है उससे भी वह सौम्य तथा हृदय में करुणा भरे से प्रतीत होते हैं- “कहती थीं माता मुझे सदा राजीव नयन। दो नील कमल हैं शेष अभी यह पुरश्चरण पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।“ रावण विजय के लिए हो रहे देवी पूजन में अपने नेत्र भी चढ़ा देने को आतुर राम सम् पात्र निसंदेह भारतीय सभ्यता में पुरुषोत्तम कहलाने योग्य हैं। दूसरों के हेतु त्याग एवं प्रेम में समर्पण का यहाँ अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। वहीं अपने महाकाव्यों से वीर रस की वर्षा कराने वाले राष्ट्र कवि ‘दिनकर’ ने अपनी रचनाओं में सदैव राम के पौरुष पर प्रकाश डाला है। कुरुक्षेत्र में दिनकर लिखते हैं- उत्तर में जब एक नाद भी उठा नहीं सागर से उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से। सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि करता आ गिरा शरण में चरण पूज दासता ग्रहण की बँधा मूढ़ बन्धन में। दिनकर के अनुसार श्रीराम केवल मर्यादापुरुषोत्तम हो जाने भर से ही पूज्य नहीं हैं, अपितु उन्होंने मर्यादा के साथ पौरुष का आभूषण भी धारण किया है जिस कारण दुष्टों के हृदय में श्रीराम का भय सदैव रहता है। श्रीराम के पूज्य होने का एक और कारण अपने महाकाव्य ‘उर्वशी’ में बताते हुए दिनकर कहते हैं- जब तक यह पावक शेष तभी तक सिंधु समादर करता है, अपना मस्तक, मणि, रत्न-कोष चरणों में लाकर धरता है।
अर्थ साफ है, लोग आपका सम्मान केवल आपकी अच्छाईयों के कारण नहीं करते। समाज में पर्याप्त सम्मान पाने के लिए स्वयं की रक्षा हेतु बाहुबल का होना भी आवश्यक है। निष्कपट व्यक्ति की निश्छलता का दुरुपयोग स्वार्थ-सिद्धि के लिए करना दुष्टों का स्वभाव है। अतः आत्म रक्षा हेतु समय-समय पर राम ने शस्त्र भी धारण किया है। पौरुष के अभाव में मनुष्य जंगल के उस असहाय मृग के समान हो जाता है जिसका शिकार मांसाहारी जीव अपने आहार के लिए करते हैं। अतः केबल ‘अच्छा’ हो जाना ही पर्याप्त नहीं है। जीवन की विपदाओं के झेलने तथा अपने शत्रुओं से आत्मरक्षा हेतु शौर्य का होना भी आवश्यक है जिससे दुष्टों के हृदय में विशेष भय बना रहे। तभी तो तुलसी बाबा कहते हैं- भय बिनु होयहिं न प्रीति।