Guest Writer : जिम्मेदारी के साथ जरूरतें बढ़ने लगी हैं, ऊंचाइयां कदमों की आहट पढ़ने लगी हैं

Banke Banarasi Pankaj
जिम्मेदारी के साथ जरूरतें बढ़ने लगी हैं, ऊंचाइयां कदमों की आहट पढ़ने लगी हैं।
ये जिंदगी है इसको खामोश ना कहिए, दूरियां अब नज़दीकियां समझने लगी हैं।
कशमकश पालकर सांसे चलेंगी कबतक, इशा़र ए नज़र धड़कन समझने लगी है।
इबादत की इजाजत किसी से क्यों मांगू, खुशियां कीमत ए दर्द समझने लगी हैं।
कई मर्तबा चलते-2 ठहरा भी हूं ‘बांके’, जबसे कोशिशें रफ्तार समझने लगी हैं।
Disclaimer
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