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पोस्टर युद्ध: एक ऐसा संघर्ष जिसमें किसी को भी जीतने का मौका नहीं मिलता… बस दीवारें ही हारती हैं

व्यंग्य

आजकल सड़कों और दीवारों पर पोस्टरों की ऐसी बाढ़ आई है, जैसे बरसात में मच्छरों का हमला हो। जगह-जगह नेतागिरी से लेकर दुकानों की सेल तक के पोस्टर चिपकाए जा रहे हैं, मानो दीवारें ही इनकी सबसे बड़ी “प्रचार सामग्री” बन गई हों।

अजीब स्थिति है, कभी लगता है कि ये पोस्टर साज-सज्जा का हिस्सा बन गए हैं तो कभी ऐसा महसूस होता है कि जैसे ये दीवारों पर रंगीन गंदगी फैलाने का नया तरीका बन गए हों। इन पोस्टरों में एक ऐसा जादू है कि जो एक बार चिपक जाए, फिर उतारने के लिए किसी विशेष सरकारी आदेश की आवश्यकता पड़ती है।

एक दिन किसी को “मुफ्त Wi-Fi” का पोस्टर दिखाई देता है, अगले दिन “आधिकारिक बुकिंग” का। अब आप ही सोचिए, क्या वाकई इन पोस्टरों से लोग “स्मार्ट” बन रहे हैं या ये सिर्फ हमें यह बताने के लिए हैं कि कहीं न कहीं कोई “स्मार्ट” मिल गया है जो बिना किसी वजह के दीवार पर चिपका हुआ है।

क्या आप कभी सोचते हैं कि इन पोस्टरों को चिपकाने वालों के पास क्या ख्याल आता होगा? “चलो यार, इस दीवार को थोड़ा सजाना चाहिए।” और फिर वो इसे चिपका देते हैं। जैसे हम घर के अंदर और बाहर सजावट करते हैं, वैसे ही दीवारें सजाई जा रही हैं, लेकिन कुछ इस अंदाज में कि अब वो दीवार ही ‘सज्जा’ बन गई है।

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