कभी हकीकत नहीं, सिर्फ झूठ: जब खासियत बन जाए महज शो-पीस, असलियत कहीं खो जाए
व्यंग्य
हमारे समाज में “खासियत” का मतलब कुछ ऐसा हो गया है जैसे मोबाइल के पीछे लगी एक चमचमाती स्टिकर जो दिखता बहुत आकर्षक है, लेकिन जब उसे हटा दिया जाता है तो न तो उसमें कुछ नया निकलता है, न ही उसमें किसी प्रकार की ताजगी। “खासियत” अब ऐसी चीज बन गई है जो हम केवल अपने बारे में बताते हैं, लेकिन जब असलियत सामने आती है तो वह पूरी तरह से अलग होती है।
हम अक्सर किसी से कहते हैं, “मेरी खासियत है कि मैं हमेशा दूसरों का ध्यान रखता हूं।” पर यही पूछो, “क्या कभी खुद की चिंता की?” तो जवाब मिलता है, “अरे, वही तो नहीं कर पाता।” यही है हमारी ‘खासियत’। दूसरों को देखकर खुश रहना, लेकिन खुद को समझने का समय नहीं मिल पाता।
खासियत का वो ‘फिल्मी’ ट्विस्ट
“खासियत” का एक और अनोखा रूप होता है जब हम खुद को किसी बहुत बड़े काम का हिस्सा समझते हैं। जैसे, कुछ लोगों की खासियत ये है कि वह हर किसी के सामने खुद को सबसे स्मार्ट दिखाते हैं।” लेकिन जब सच सामने आता है तो वह स्मार्टनेस सिर्फ एक अच्छा आउटफिट और चमचमाती घड़ी तक सीमित होती है जो असल में खुद से ज्यादा किसी और को दिखाने के लिए होती है। हम उस पर कहते हैं, “यह तो बस शुरुआत है।”
खासियत का दिखावा
हम सभी अपने आप को एक अलग ही पैमाने पर देखना चाहते हैं, लेकिन असल में हमारी खासियत बस यही होती है कि हम जितना दिखावा करते हैं, उतनी ही कमियां अंदर छुपाए रखते हैं। जब कोई हमें हमारी खासियत के बारे में पूछता है तो हम उसे बताने में कोई कसर नहीं छोड़ते, लेकिन सच्चाई ये है कि हम खुद भी उस खासियत से ठीक से परिचित नहीं होते।
इसी तरह से “खासियत” का मतलब केवल वही है जो हम उसे बनाना चाहते हैं- कभी सच, कभी झूठ और कभी सिर्फ एक कल्पना।