आराम के शहंशाह: ओलंपिक में आराम करने की प्रतियोगिता होती, तो ये बिना कुछ किए गोल्ड मेडल जीत जाते
व्यंग्य
ज्यादा आराम करने वाले लोग एक अद्भुत प्रजाति के होते हैं, जिन्हें देखकर वैज्ञानिक भी आश्चर्य में पड़ जाते हैं कि इनकी ऊर्जा कहां जाती है। ये वो लोग होते हैं, जिनका हर वक्त का लक्ष्य होता है- “मैं क्यों चलूं, जब मैं आराम से लेट सकता हूं?”
ये लोग आराम के शहंशाह होते हैं। इन्हें सोफे से उठाना इतना कठिन होता है, जितना ट्रेन को पटरी से खींचकर सड़क पर दौड़ाना। अगर आपको किसी आरामप्रिय व्यक्ति से मिलना है, तो बस टीवी के सामने पड़े सोफे के नीचे देखिए, हो सकता है वो वहीं सो रहे हों।
इनके लिए आराम का मतलब सिर्फ सोना नहीं होता, बल्कि बैठकर सोचना होता है कि “आज कौन सा काम नहीं करना चाहिए?” ये अपने विचारों में इतने तल्लीन होते हैं कि आलस्य भी इनका मुकाबला करने से डरता है। अगर इन्हें ओलंपिक में आराम करने की प्रतियोगिता होती, तो ये बिना कुछ किए भी गोल्ड मेडल जीत जाते।
जब इन्हें कोई काम करने के लिए कहता है, तो इनका जवाब होता है- “अभी तो आराम का समय चल रहा है, कल देखेंगे!” और ये “कल” कभी नहीं आता। इनके लिए ‘समय की पाबंदी’ का मतलब होता है कि आराम करने का कोई मौका हाथ से न जाने दिया जाए।
हद तो तब हो जाती है, जब इन्हें लगता है कि रिमोट तक उठाने के लिए भी बहुत मेहनत करनी पड़ रही है। ऐसे में इन्हें लगता है कि अगर रिमोट में आवाज कंट्रोल करने का फंक्शन होता, तो जिंदगी कितनी आसान होती।
तो जनाब, ज्यादा आराम करने वाले लोग सिर्फ सोफे के राजा नहीं होते, बल्कि आलस्य के राजा भी होते हैं। इनका सिद्धांत होता है – “अभी आराम करो, बाकी काम कल पर छोड़ो।”