ट्रैफिक का महायुद्ध: एक तरफ गाड़ियों का महासागर, दूसरी तरफ पैदल चलते लोगों की सेना, और हम रणनीतिकार
व्यंग्य
जिंदगी में चुनौतियां तो ऐसे आती हैं, जैसे शादी में रिश्तेदार- बिन बुलाए, बिन सोचे। सुबह-सुबह उठते ही सबसे पहली चुनौती होती है अलार्म के साथ। वो तो मानो एक युद्ध का शंखनाद हो। अलार्म बजता है और हम उसे बंद करने के लिए ऐसा हाथ बढ़ाते हैं, जैसे यज्ञ में अग्नि समर्पित कर रहे हों। फिर जब आंखें खोलते हैं तो अगले पलों में एहसास होता है कि ऑफिस के लिए लेट हो रहे हैं, और अब सब कुछ ‘फास्ट फॉरवर्ड मोड’ में चलना होगा।
चाय बनानी हो तो दूध को उबालने में ऐसी चुनौती महसूस होती है, जैसे दूध नहीं कोई खतरनाक केमिकल प्रयोग हो रहा हो। दूध का उठता हुआ फेन मानो हमें चेतावनी देता है- “तुम एक सेकंड भी इधर-उधर हुए, तो मैं किचन को झील बना दूंगा।”
फिर रास्ते में ट्रैफिक का महायुद्ध शुरू होता है। एक तरफ गाड़ियों का महासागर, तो दूसरी तरफ पैदल चलते लोगों की सेना। इनसे बचने का उपाय ढूंढने की कोशिश में ऐसा महसूस होता है, मानो हम कोई रणनीतिकार हों, जो गाड़ियों के चक्रव्यूह से निकलने का तरीका ढूंढ रहे हों।
ऑफिस पहुंचते ही बॉस का चेहरा देखकर लगता है कि सुबह की सारी तैयारियां बेकार हो गईं। उनका चेहरा देखकर ऐसा लगता है मानो वो हमारी पिछली सात पीढ़ियों से हमारी निंदा कर रहे हों। और फिर जब वो नई-नई “टास्क” पकड़ाते हैं, तो दिल में यही ख्याल आता है- “क्या मैं ओलंपिक में एंट्री कर रहा हूं?”
चुनौतियां सिर्फ काम तक ही सीमित नहीं होतीं। घर लौटते वक्त दुकानदार से बचे पैसे लेने में भी मानो एक और महाभारत छिड़ जाती है। वो दो रुपये ऐसे छुपाकर रखता है, जैसे वो उसकी बचत का आखिरी साधन हो।
और अंत में, जब दिन की सारी चुनौतियां खत्म करके सोने जाते हैं, तो मन ही मन यही सोचते हैं, “क्यों न कोई ऐसा अलार्म हो, जो हमें अगली चुनौती के लिए तैयार कर दे?”
लेकिन ये चुनौतियां ही हैं, जो जिदगी को ‘रोचक’ बनाए रखती हैं। वरना बिना इन कठिनाइयों के जीवन उतना ही सरल होता जितना कि… खिचड़ी बनाना।