एक असंभव मिशन: मानसिक शांति की खोज, बहुत कठिन है डगर पनघट की
व्यंग्य
कहते हैं कि मानसिक शांति तो हर इंसान की सबसे बड़ी चाहत है। लेकिन इस आधुनिक युग में यह चाहत रखना वैसा ही है जैसे बिना पढ़े टॉप करने की उम्मीद करना। जितना हम इसके पीछे भागते हैं, उतना ही यह हमसे दूर भागती जाती है। और फिर, हम सभी जगह ढूंढने लगते हैं कि आखिर यह मिलती कहां है?
सुबह उठकर अखबार खोलें तो लगता है, “बस अब कुछ पढ़ूंगा तो मेरा दिमाग शांत हो जाएगा।” और पहले पन्ने पर ही ऐसा कुछ पढ़ने को मिलता है कि मानसिक शांति हवा हो जाती है। सोचिए, शांति से अखबार पढ़ना भी चुनौती बन गया है।
फिर हम योगा क्लास की ओर बढ़ते हैं, सोचते हैं कि यहां तो जरूर शांति मिलेगी। मगर योगा टीचर का हर तीसरा वाक्य- “गहरी सांस लें, सब कुछ भूल जाएं” – सुनकर लगता है जैसे कह रहे हों, “अभी सांस लो, अगली किस्त में शांति भी दे देंगे।” हद तो तब हो जाती है जब बगल में बैठे सज्जन इतने जोर से “ओम…” का जाप करते हैं कि उनकी शांति भी हमें बेचैन कर देती है। ऐसा लगता है, जैसे शांति नहीं, बल्कि स्पीकर टेस्ट चल रहा है!
इसके बाद जब इंसान घर लौटता है तो सोचता है कि अपने परिवार में ही कुछ राहत मिलेगी। लेकिन परिवार से जो सवाल मिलने लगते हैं- “बाहर क्या हुआ?”, “कब तक घर आओगे?”, “संडे को कहां जा रहे हो?” यह सब मिलकर ऐसी शांति लाते हैं कि मन में विचार आता है कि यही लोग हैं, जिन्होंने असली शांति को कहीं छुपा रखा है।
कुछ लोग सलाह देते हैं, “फुर्सत के पलों में गार्डन में टहलने चले जाइए।” अब वहां जाओ तो एक ओर बच्चे खिलखिला रहे हैं, दूसरी ओर कुत्ते और उनके मालिक दौड़ रहे हैं, और कोई एक कोने में पेड़ों को गले लगाने में व्यस्त है। पूछने पर जवाब मिलता है, “यह प्रकृति से जुड़ने का नया तरीका है।” सोचने लगते हैं, क्या मानसिक शांति अब पेड़ की डालियों में लटकी हुई है, जो हमसे दूर भाग रही है?
अंततः, थक कर जब इंसान बिस्तर पर लेटता है तो खुद से कहता है, “कल से पक्का एक शांत जीवन जीना शुरू करूंगा।” और ठीक तभी किसी ने कहा- “गहरी सांस लें, मन शांत रखें।” अब दिल कहता है, बस भाई, शांति चाहिए तो सबसे पहले ये मंत्र छोड़ो।
खैर, इस व्यंग्य को व्यंग्य की शक्ल में ही लें। शांत रहने के कई तरीके हैं और शांति खोजने के भी। अपने-अपने तरीके का इस्तेमाल करें। तब तक न रुकें जब तक शांति न मिले।