झूठ बोले कौवा काटे: और झूठ भी ऐसे कि सत्य खुद ही आकर कहे, भाई, तू ही सही है, मैं तो झूठा हूं
व्यंग्य
झूठ बोलना आजकल एक ऐसी कला हो गई है, जिसमें लोग बिना किसी प्रशिक्षण के महारथ हासिल कर लेते हैं। बचपन में हम सबने वो कहावत सुनी थी- “झूठ बोले कौवा काटे” लेकिन अब सवाल उठता है कि आखिर कौवे ने कब, किसे और कहां काटा? आज के दौर में तो कौवे शायद खुद भी सोच रहे होंगे कि किस-किस को काटें? आखिर इतने सारे झूठों के बीच उनका भी धैर्य जवाब दे गया होगा।
पहले जमाने में जब कोई झूठ बोलता था, तो चेहरे पर हल्की शर्म, और माथे पर पसीना आ जाता था। लेकिन आजकल लोग ऐसे झूठ बोलते हैं जैसे सुबह की चाय पी रहे हों। और झूठ भी ऐसे कि सत्य खुद ही आकर कहे, “भाई, तू ही सही है, मैं तो झूठा हूं।”
कभी किसी से पूछो, “तुमने काम क्यों नहीं किया?” तो तुरंत जवाब मिलता है, “वो तो कर ही रहा था, अचानक बिजली चली गई।” भले ही बिजली विभाग की रिपोर्ट कह रही हो कि दिनभर बिजली की सप्लाई दुरुस्त थी, लेकिन झूठ बोलने वाले का आत्मविश्वास देखकर लगता है कि वो खुद ही बिजली कंपनी चला रहे हैं।
अब “कौवा काटे” की बात करें तो, ये भी एक पुरानी चेतावनी है, जो बच्चों को सिखाई जाती थी ताकि वे झूठ न बोलें। लेकिन कौवे बेचारे अब इतने व्यस्त हो गए हैं कि हर झूठ पर काटने जाएं तो शायद उनके पास अपनी ही जिंदगी जीने का समय न बचे। अब तो कौवे भी मॉडर्न हो गए हैं, उन्होंने झूठ पकड़ने का ठेका इंसानों को ही दे दिया है।
वर्तमान समय में झूठ बोलने के तरीके भी अपग्रेड हो गए हैं। एक समय था जब लोग “सफेद झूठ” बोला करते थे, लेकिन अब झूठ के भी रंग बदल गए हैं। झूठ का रंग काले से लेकर इंद्रधनुषी तक हो गया है। लोग बड़े गर्व से झूठ बोलते हैं और अगर पकड़े जाएं तो जवाब देते हैं, “अरे, मैं तो मजाक कर रहा था।”
कहावत है, “झूठ के पांव नहीं होते”, लेकिन इस दौर के झूठ तो रॉकेट पर सवार होकर चलते हैं। उन्हें पकड़ने का काम तो कौवे के बस का भी नहीं रहा। कौवा बेचारा अब किसी पेड़ की ऊंची डाल पर बैठा सोचता होगा, “मैं किस-किस को काटूं? और वैसे भी, इन लोगों को काटने से क्या फायदा? ये तो दर्द की जगह बहाने ढूंढने में एक्सपर्ट हो चुके हैं।”
नतीजा ये है कि “झूठ बोले कौवा काटे” सिर्फ एक कहावत बनकर रह गई है। कौवे अब इस प्रतिस्पर्धा से बाहर हो गए हैं, और झूठ बोलने वाले बिना किसी डर के अपनी कला का प्रदर्शन करते रहेंगे।
अंत में सवाल यह है: अब जब कौवे काटने नहीं आ रहे, तो हम इंसानों को कब समझ आएगी कि सच्चाई ही एकमात्र रास्ता है? शायद तब जब कौवे फिर से अपनी नौकरी पर लौट आएंगे।