बड़ी बोल सबसे अलग 

ऑफिस 2nd पार्ट: वो जगह जहां लोग छोटे-मोटे ‘राजनीतिज्ञ’ बन जाते हैं, इन खास प्रजातियों को तो जानते ही होंगे?

ऑफिस, एक ऐसा अखाड़ा है, जहां लड़ाई कुर्सी की होती है, लेकिन यहां पहलवान न तो दंड पेलते हैं, न कोई दांव-पेंच लगाते हैं। यहां के पहलवान दिमाग से कसरत करते हैं और जुबान से दांव चलते हैं। जितनी लंबी जुबान, उतना ऊंचा पद!

हर ऑफिस में कुछ खास प्रजातियां होती हैं। सबसे पहले आते हैं ‘कुर्सी चिपकू’। ये वो लोग हैं जो एक बार कुर्सी पर बैठ जाएं तो फिर उठने का नाम ही नहीं लेते। भले ही कुर्सी चिपक जाए, पर ये डटे रहते हैं। काम हो या न हो, लेकिन इन्हें हमेशा ऐसा दिखाना है जैसे ये ऑफिस की धुरी हैं और इनके बिना तो पंखा भी न घूमे। इनका दिन शुरू होता है फाइल खोलने से और खत्म होता है चाय की ट्रे पर।

फिर आते हैं ‘बैठक प्रेमी’। इनका जीवन का एक ही ध्येय है- मीटिंग! सुबह आते ही “आज मीटिंग कब है?” का सवाल उठता है। कोई कुछ बोले न बोले, इनका बोलना तय है। “सुझाव” ऐसे देंगे जैसे देश की अर्थव्यवस्था इनके इशारों पर चल रही हो। मीटिंग के बाद का कॉफी ब्रेक इनके लिए साक्षात स्वर्ग होता है, जहां इन्होंने दो-चार बातें कहकर पूरे हफ्ते का कोटा पूरा कर लिया।

अब मिलते हैं ‘देर से आने वाले’। ये वो लोग हैं जिनका घड़ी से पुराना बैर है। ऑफिस की टाइमिंग चाहे 9 बजे की हो, इनके लिए हर दिन 11 बजे का हो जाता है। आते ही सबसे पहले बहाना – “यार, आज फिर ट्रैफिक में फंस गया!” जबकि असलियत में वो “रात देर से सोया” वाली बीमारी से जूझ रहे होते हैं। इनका मानना है कि जितनी देर से आएं, उतना बड़ा काम का दिखावा करना चाहिए।

और सबसे खास हैं ‘हां में हां मिलाने वाले’। बॉस जो भी कहें, इनका सिर हिलना तय है। बॉस कहे “असंभव”, तो ये कहेंगे, “बिल्कुल, सर।” बॉस कहे “मुमकिन”, तो तुरंत, “आप सही कह रहे हैं, सर।” इन्हें तो कुर्सी चाहिए और कुर्सी के लिए चुपचाप गर्दन हिलाना इन्हें मंत्र की तरह आता है।

ऑफिस का असली मज़ा तब आता है जब सालाना प्रमोशन का मौसम आता है। पूरा ऑफिस ऐसे काम करने लगता है जैसे ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीतना हो। सभी अपनी फाइलें चमकाने में जुट जाते हैं। बॉस को सुबह ‘गुड मॉर्निंग’ कहने का औसत अचानक से बढ़ जाता है। जिनके काम की किसी को भनक नहीं होती, वो भी इस समय सुपरहीरो बन जाते हैं।

लेकिन असली खेल तब होता है जब प्रमोशन किसी और को मिल जाता है। तब पूरा ऑफिस एक सुर में कहता है, “अरे, इसे कैसे मिल गया?” फिर शुरू होती है गॉसिप ओलंपिक- “भईया, चमचागिरी का जमाना है, मेहनत से कुछ नहीं होता।”

ऑफिस दरअसल वो जगह है जहां कुर्सी पाने की चाहत में लोग छोटे-मोटे ‘राजनीतिज्ञ’ बन जाते हैं, बिना चुनाव लड़े ही। आखिरकार, ऑफिस की कुर्सी भी राजनीति के खेल जैसी ही होती है- यहां भी तो कुर्सी वही पाता है, जो ‘चालाक’ बन जाता है!

Related posts