दिल्ली धर्म-कर्म वाराणसी सबसे अलग 

रामनगर की रामलीला: श्रीराम को मना कर वापस लाने भरत चले चित्रकूट, भक्ति, त्याग और भाईचारे का अद्भुत उदाहरण

वाराणसी, रामनगर: रामलीला के ग्यारहवें दिन का प्रसंग हर बार की तरह इस वर्ष भी अत्यधिक भावुक और पौराणिक संदेश से भरा रहा। भरत का चित्रकूट यात्रा पर निकलना न केवल रामायण की कथा में गहराई और त्याग का परिचायक है, बल्कि यह संपूर्ण भारतीय संस्कृति में भातृ प्रेम और कर्तव्यनिष्ठा का आदर्श उदाहरण बन चुका है।

भरत का त्याग और श्रीराम के प्रति उनकी निष्ठा भारतीय परिवार और समाज में आज भी प्रेरणा का स्रोत है। रामलीला के मंचन ने इस अध्याय को इतनी सजीवता से प्रस्तुत किया कि दर्शकों की आंखें भर आईं।

भरत जैसा आदर्श चरित्र पौराणिक साहित्य में दुर्लभ है। राम के अयोध्या से वनवास जाने के बाद भरत ने जिस प्रकार अपने भाइयों के प्रति प्रेम और त्याग दिखाया, वह अनंत काल तक स्मरणीय रहेगा। जैसे ही भरत ननिहाल से अयोध्या लौटे, उन्होंने अपनी माता कैकेई से पूरे घटनाक्रम के बारे में जानने के बाद उसे भर्त्सना की।

भरत का गुस्सा इस बात का प्रतीक था कि सच्चा प्रेम सत्ता और लोभ से कहीं ऊपर होता है। भरत ने मां को कुलक्षिणी कहकर उन्हें उनकी भूलों का एहसास कराया। मंथरा के षड्यंत्र का पर्दाफाश होते ही शत्रुघ्न ने क्रोध में आकर मंथरा को दंडित करने की कोशिश की, लेकिन भरत ने उन्हें रोका, यह कहते हुए कि श्रीराम स्त्री वध से प्रसन्न नहीं होंगे।

यह प्रसंग केवल पारिवारिक संबंधों को नहीं, बल्कि जीवन में कर्तव्य और मर्यादा के महत्व को भी रेखांकित करता है। भरत ने अपने क्रोध पर संयम रखते हुए यह संदेश दिया कि धर्म और आदर्शों का पालन करना ही सच्ची वीरता है।

जब भरत ने अयोध्या का सिंहासन संभालने से इनकार कर दिया, तो गुरु वशिष्ठ ने उन्हें सलाह दी कि राजा का धर्म पालन करना ही उचित है, लेकिन भरत का मन एक ही स्थान पर अटका था- वह राम को वापस लाने के लिए चित्रकूट की ओर चल पड़े।

भरत के साथ उनकी चतुरंगिणी सेना, गुरु वशिष्ठ, माता कौशल्या और अयोध्या के सभी प्रमुख लोग राम को मनाने के लिए चल पड़े। यह यात्रा केवल एक भ्रातृ प्रेम का प्रदर्शन नहीं थी, बल्कि यह सम्पूर्ण अयोध्या का राम के प्रति अटूट विश्वास और प्रेम था।

मार्ग में निषादराज से मुलाकात ने इस यात्रा को और भी पवित्र बना दिया। भरत और निषादराज के बीच की बातचीत ने यह दिखाया कि प्रेम और मित्रता किसी जाति या वर्ग के आधार पर नहीं, बल्कि सच्चे हृदय से होती है।

भरत का राम के पदचिन्हों पर चलते हुए सिर नवाना दर्शाता है कि उनके दिल में राम के प्रति श्रद्धा कितनी गहरी थी। भारद्वाज मुनि के आश्रम में पहुंचने पर पूरी सेना ने विश्राम किया और वहीं आरती की गई। यह धार्मिक यात्रा केवल राम को वापस लाने का प्रयत्न नहीं थी, बल्कि यह भक्ति और आस्था की सर्वोच्च परीक्षा भी थी।

सांस्कृतिक महत्व


भरत का चरित्र रामायण के सबसे गहरे पहलुओं में से एक है। यह प्रसंग आज भी हमें त्याग, भक्ति, और सच्चे भाईचारे का पाठ पढ़ाता है। रामलीला के मंचन में इस प्रसंग को देखकर दर्शक भावुक हो गए।

यह केवल धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति और संस्कारों का जीवंत उदाहरण है, जो हमें यह सिखाता है कि कर्तव्य और प्रेम के लिए कोई भी त्याग छोटा नहीं होता।

Related posts