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रामनगर की रामलीला: केवट की अनूठी भक्ति, बिना पांव पखारे प्रभु श्रीराम को नाव पर बिठाने से इंकार

केवट की अनूठी भक्ति: जब प्रभु को बिना पैर धोए नाव पर बिठाने से किया इंकार

वाराणसी, रामनगर: रामनगर की ऐतिहासिक रामलीला करोड़ों लोगों की आस्था का केंद्र है। हर वर्ष अपने अनूठे पौराणिक प्रसंगों और सांस्कृतिक धरोहर के जीवंत चित्रण के कारण विश्वभर में यहां की रामलीला प्रसिद्ध है। यह केवल एक नाट्य मंचन नहीं, बल्कि सदियों से चली आ रही आस्था, संस्कृति और परंपरा का प्रतीक है, जो हर साल राम के वनगमन, संघर्ष और विजय की गाथा को जीवंत करती है।

केवट की भक्ति और विनम्रता

इस वर्ष रामलीला के दसवें दिन केवट-प्रसंग को मंचित किया गया। जब राम, लक्ष्मण और सीता वनगमन के दौरान गंगा पार करने के लिए गंगा तट पर पहुंचे, तो उन्होंने केवट से नदी पार करवाने के लिए नाव मांगी। केवट राम के चरण कमलों की महिमा से भली-भांति परिचित थे। उन्होंने सुना था कि जब प्रभु के चरण पृथ्वी पर पड़े, तो पत्थर बनीं अहिल्या का उद्धार हो गया। इसी डर के कारण केवट ने राम को बिना पांव पखारे अपनी नाव पर बैठाने से मना कर दिया, उन्हें डर था कि कहीं उनकी नाव भी स्त्री न बन जाए।

राम ने केवट की भक्ति और श्रद्धा को समझते हुए उन्हें अपने चरण धोने की अनुमति दी। केवट ने गंगाजल से राम के चरण पखारे, और चरणामृत के रूप में इसे ग्रहण कर अपने जीवन को धन्य किया। इसके बाद ही केवट ने राम, सीता और लक्ष्मण को नाव पर बिठाकर गंगा पार उतारा। यह दृश्य देखकर देवताओं ने भी आकाश से जय-जयकार किया, मानो यह केवल केवट का नहीं, समस्त मानवता का उद्धार हो रहा हो।

पौराणिक महत्ता और सांस्कृतिक धरोहर

रामनगर की रामलीला न केवल भगवान राम के जीवन और संघर्ष को प्रस्तुत करती है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और परंपरा की धरोहर है। यह लीला अपनी निरंतरता बनाए हुए है, जो हर वर्ष लाखों दर्शकों को आध्यात्मिक अनुभव के साथ-साथ सांस्कृतिक धरोहर की झलक दिखाती है।

राम की वन यात्रा के दौरान, ऋषि-मुनियों से उनका मिलन और वनवासियों द्वारा दी गई सहायता, यह दर्शाता है कि राम का वनगमन केवल उनका व्यक्तिगत संघर्ष नहीं, बल्कि समस्त मानवता के उद्धार के लिए था। केवट जैसे पात्र इस बात के प्रमाण हैं कि प्रभु की महिमा और भक्ति को समझने के लिए किसी बड़े पद या प्रतिष्ठा की आवश्यकता नहीं है, बल्कि सच्ची श्रद्धा और भक्ति ही सबसे बड़ा आधार है।

संस्कृति का अनमोल खजाना

रामनगर की रामलीला केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि यह भारतीय सभ्यता का जीवंत प्रतीक है, जो आने वाली पीढ़ियों को हमारी सांस्कृतिक धरोहर से परिचित कराता है। इस लीला के माध्यम से भारत की अनगिनत पौराणिक कथाएं और लोक मान्यताएं जीवित रहती हैं, जो समाज में नैतिक मूल्यों और धार्मिक भावनाओं का संचार करती हैं।

दशवें दिन की लीला का समापन

दशवें दिन की रामलीला का समापन राम द्वारा चित्रकूट में कुटिया बनाने की योजना से हुआ, जहां वे निषादराज से विदा लेकर प्रयाग पहुंचे। यहां से त्रिवेणी स्नान के बाद वे भारद्वाज मुनि के आश्रम गए, जहां मुनि ने उन्हें चित्रकूट पर्वत पर निवास करने की सलाह दी। इस प्रसंग ने दर्शकों के दिलों में आस्था की गहरी छाप छोड़ी।

रामनगर की यह रामलीला करोड़ों लोगों के लिए आस्था, संस्कृति और प्रेरणा का अद्वितीय स्रोत है। यह एक ऐसा आयोजन है, जो हर साल लोगों को राम के जीवन से जुड़े पौराणिक प्रसंगों से जोड़ता है और भारतीय संस्कृति की समृद्धि को विश्व पटल पर प्रस्तुत करता है।

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