काम का दबाव और हमारे जज्बात: बिना दबाव लिए पढ़िए, जिंदगी की रेस में दौड़ते रहिए
व्यंग्य
आजकल के ऑफिस का माहौल ऐसा हो गया है कि अगर कोई दिन बिना काम के दबाव के बीत जाए, तो लगता है कि शायद कुछ गड़बड़ है। फिलहाल मेरे एक साथी का किस्सा, उन्हीं की शब्दों में- एक दिन सुबह-सुबह ऑफिस पहुंचा और देखा कि बॉस की शक्ल कुछ ज्यादा ही चमक रही है। मैंने सोचा, “आज कुछ खास काम होगा,” लेकिन बॉस ने मुस्कुराते हुए कहा, “अरे, आज आप पर कोई काम का दबाव नहीं है।”
मैंने आश्चर्य से सोचा, “क्या यह वही बॉस है जो बिना काम के सिग्नेचर भी नहीं करता?” खैर, मैंने इसे किस्मत की मेहरबानी मानकर अपने कंप्यूटर को चालू किया और फेसबुक पर नजर दौड़ाने लगा। तभी अचानक मेरे सहकर्मी ने आकर कहा, “भाई, क्या तुमने सुना? हमारे ऊपर नया प्रोजेक्ट आ गया है और इस बार टाइमलाइन और छोटी है।”
अब मेरे चेहरे पर मुस्कान की जगह तनाव की लकीरें साफ नजर आने लगीं। जैसे ही मैंने प्रोजेक्ट डिटेल्स देखी, मेरे अंदर का आत्मविश्वास कुछ इस तरह पिघलने लगा जैसे गर्मी में आइसक्रीम। काम का दबाव ऐसा था कि नींद तो दूर, सपनों में भी एक पेंडिंग रिपोर्ट नजर आने लगी।
और बॉस? वो तो हमेशा की तरह एक मीटिंग से दूसरी मीटिंग में घुसते हुए कहते हैं, “काम में फोकस करिए। सफलता कदम चूमेगी।” मैंने सोचा, “सफलता तो छोड़ो, अभी तो नींद ही चूम ले तो बड़ी बात है।”
काम का दबाव ऐसा है कि अब तो चाय पीने का वक्त भी सिर्फ मीटिंग्स के बीच मिलता है। चाय का घूंट लेते ही मन में आता है कि इस घूंट को कितना एन्जॉय करूं, क्योंकि अगले प्रोजेक्ट के बाद शायद ये भी नसीब न हो। ऑफिस का काम घर पर और घर का काम ऑफिस में हो रहा है। हर जगह काम ही काम। लगता है कि एक दिन हम प्रिंटर से बाहर निकलने वाले पेपर की तरह प्रिंट होकर रह जाएंगे।
तो गुरु मेरी मानो यानी लेखक की- काम का दबाव सिर्फ काम नहीं, यह एक जीवनशैली बन चुका है। अब हमें इसमें इतनी महारत हो गई है कि कभी-कभी तो अपने दोस्तों को भी “डेडलाइन” समझने लगते हैं।
कहते हैं, “जीवन एक रेस है,” लेकिन सच तो यह है कि ऑफिस का काम एक ऐसी रेस है जिसमें भागते तो हम हैं, लेकिन जीतता हमेशा हमारा बॉस ही है।